Thursday, April 3, 2014

रात बीत जाये सपनों में ,दिन काटे न कटे - प्रोफे. राम स्वरूप 'सिन्दूर'

रात बीत जाये सपनों में
दिन काटे न कटे
सब कुछ घट जाता है
लेकिन जो चाहूँ न घटे !

दिहरी मुझको, मैं दिहरी को
जैसे भूल गया हूँ
आसपास के लिए अजाना
मैं हो गया नया हूँ
दूरी की खाई गहरी है
कोशिश से न पटे !

अब भविष्यफल पूछूँ-देखूं
यह उत्साह नहीं है
छलनी-छलनी वसन, किसी की
कुछ परवाह नहीं है
आंधी चली, चिथड़ों-जैसे
कपड़े और फटे !

मन की दशा कि जैसे पल-पल
अतल-वितल होती है
श्वास-श्वास बरसात सावनी से
आँखे धोती है
बौराये आमों के नीचे
बिसरे गीत रटे !

मुझ पर गाली याकि दुआ का
असर नहीं होता है
अंध गुफा में बैठ कौन है
जो कि नहीं रोता है
मेरे प्राणों में क्या जाने
कितने गीत अटे !

सहज भाव से अब मैं कुछ भी
सहने का आदी हूँ
कोई मुझको कह देता है
पागल-उन्मादी हूँ
जीवन के पट खुले, मृत्यु का
बोझिल भार हटे !

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