Wednesday, April 16, 2014

सो न सकूँगा और न तुझ को सोने दूंगा, हे मन-बीने ! - हरिबंशराय बच्चन

सो न सकूँगा और न तुझ को सोने दूंगा, हे मन-बीने !

इसीलिये क्या मैंने तुझ से
सांसों के संबंध बनाये,
मैं रह-रह कर करवट लूँ तू
मुख पर डाल केश सो जाये,

रैन अँधेरी ,  जग जा गौरी
माफ़ आज की हो बरजोरी
सो न सकूँगा और न तुझ को सोने दूंगा, हे मन-बीने !

सेज सजा सब दुनिया सोयी
यह तो कोई तर्क नहीं हैं,
क्या मुझ में-तुझ में , दुनिया में
सच कह दे , कुछ फर्क नहीं है ,

स्वार्थ प्रपंचों के दू:स्वप्नों
में वह खोयी , लेकिन मैं तो
खो न सकूँगा और न तुझ को खोने दूंगा , हे मन-बीने !

जाग छेड़ दे एक तराना
दूर अभी है भोर, सहेली !
जगहर सुन कर के भी अक्सर
भग जाते है चोर, सहेली !

सधी-बदी-सी चुप्पी मारे
जग लेटा, लेकिन चुप मैं तो
हो न सकूँगा और न तुझ को होने दूंगा, हे मन-बीने !

गीत चेतना के, सिर कलगी ,
गीत ख़ुशी के , मुख पर सेहरा ,
गीत, विजय की कीर्ति पताका ,
गीत , नींद गफ़लत पर पहरा ,

पीड़ा का स्वर आंसू , लेकिन
पीड़ा की सीमा पर मैं तो
रो न सकूँगा और न तुझ को रोने दूंगा , हे मन-बीने !

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