Monday, April 7, 2014

शशांक सुरेन्द्र बदकुल की एक ग़ज़ल

ख्वाब आता है तो पलकों पे ठहर जाता है
आँख खुलते ही हवाओं में बिखर जाता है

आदमी सीख ले फूलों से ही जीने का हुनर
खार के बीच में रह के जो संवर जाता है

खुदको औरो की नज़र में तू तमाशा न बना
वक्त कितना भी बुरा हो तो गुजर जाता है

तेरी जुल्फों की घनी छाओ में मिलता है सुकू
जो भी आता है तो पल भर को ठहर जाता है

ऐ खुदा तू ही बता किस पे भरोसा कर लूँ
वादा करके यहाँ हर शख्स मुकर जाता है

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