Sunday, April 6, 2014

लाल सुर्ख आंधी - दिव्या शुक्ला




एक अरसे बाद आज फिर आई
न जाने क्यूँ सुर्ख लाल आंधी
एकबारगी तो आत्मा काँप उठी
जब जब ये लाल आंधी आती है
कुछ न कुछ छीन ले जाती हैं
पहली बार जब मेरे होशोहवास में आई थी
याद है उस रात को सुर्ख आंधी ने कैसे
इन हाथों को हल्दी से पीला रंग
एक झोंके में ही अपने ही घर में पराया कर दिया था
रोप दिया नन्हे बिरवे को दूसरी माटी में
जब भी जड़े अपनी पकड़ बनाने लगती
हवा हल्का झोका उसे हिला जाता
प्रयत्न किये पर पराई की पराई ही रह गई
कभी जम ही नहीं पाई नई माटी में
आज भी सोचती हूँ अपना घर कौन सा है

बौखल बदहवास सी सब को खुश करती फिरती रही
याद ही न रहा मै कौन हूँ मेरी भी कहीं कोई खुशी है
गोल रोटियां गोलमटोल बच्चे और उन्ही के संग
गोल गोल घूमती मेरी पूरी दुनिया यहीं तक सीमाएं खींची रही
कभी कभी मन में रिसाव होता पीडाएं बह उठती सूखी आँखों से
पर सीमाओं को पार करने का साहस कभी न हुआ --न जाने क्यूँ
फिसलन ही फिसलन थी अपनी आत्मा के टपकते रक्त की फिसलन
जब जब बढे पाँव तब तब उसी फिसलन से सरक कर
मेरी जिंदा लाश को पटक आते लक्ष्मणरेखा के भीतर ही --
बड़ी लाचारी से पलट कर देखती तो पाती
दो कुटिल आँखों में कौंधती व्यंग्यात्मक बिजली
चीर देती कलेजा वह तिर्यक विजई मुस्कान -
लाल आंधी की प्रतीक्षा सी तैरने लगी थी अब मन में -
और इस बार सीमाएं तो उसने तहसनहस कर डाली परन्तु
कैद का दायरा बड़ा दिया बड़े दायरे में खींची लक्ष्मणरेखा
टुकड़ों में मिली स्वंत्रतता उफ़ साथ में हाडमांस से जुड़े कर्तव्य
अब इस बार क्यूँ आई आज क्या ले जायेगी क्या दे जायेगी
न जाने क्या क्या उमड़ता घुमड़ता रहा रीते मन में -
कोई भय नहीं आज खोने का /ना ही कोई लालसा कुछ पाने की
यही सोचते हुए न जाने कब मै द्वार खोल कर बाहर आ गई
शरीर के इर्दगिर्द ओढ़नी को लपेट कर निर्भीक खड़ी रही
आकाश की ओर शून्य में घूरती हुई -- मुस्कान तैर रही थी मुख पर
और मै धीरे धीरे बढ़ रही थी दूर चमकती हुई एक लौ की ओर
बिना यह सोचे क्या होगा दिए की लौ झुलसा भी सकती है
परंतु बढती जा रही थी बरसों से बंधी वर्जनाओं की डोर झटकती
सारी सीमाओं तोड़ती हुई लक्ष्मणरेखाओं को पैर से मिटाते हुए --
न जाने कितने अरसे बाद पूरी साँस समां रही थी सीने में वरना अब तक तो
बस घुटन ही घुटन थी --और फिर आहिस्ता आहिस्ता मंद स्मित
एक अट्टहास में बदलता गया गूंजने लगी दिशाएँ
बरसों से देह में लिपटी मृत रिश्तों की चिराइंध
बदलने लगी मलय की शीतल सुगंध में -
लक्ष्मणरेखा अब भी है परंतु स्वयं की बनाई हुई
अब इसे मेरी अनुमति के बिना नहीं पार सकता कोई

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