Sunday, April 27, 2014

खो गयी है सृष्टि - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

दीप को जल में विसर्जित कर दिया मैंने !
इस अँधेरी रात में , यह क्या किया मैंने !

यूँ लगे , जैसे नदी में बह गया हूँ मैं ,
तीर पर , यह कौन बैठा रह गया हूँ मैं ,
एक क्षण , पूरे समर्पण का जिया मैंने !

मिट गया अन्तर , सुरभियों और स्वांसों में ,
छोड़ यह तन , छिप गया सब कुछ कुहासों में ,
अमृत से बढ़ कर , तृषा का रस पिया मैंने !

खो गयी है सृष्टि , या-फिर खो गया हूँ मैं ,
जन्म के पहले प्रहर-सा , हो गया हूँ मैं ,
काल जैसे कुशल ठग को , ठग लिया मैंने !

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