Wednesday, April 16, 2014

जाने कब रुक जांय ज़िन्दगी के पहिये ! - रमानाथ अवस्थी

देख रहे हैं जो भी कृपाकर मत कहिये !
मौसम ठीक नहीं आजकल चुप रहिये !

चारों ओर हमारे जितनी दूर तलक जीवन फैला है,
बाहर से जितना उजला वह, भीतर उतना ही मैला है;
मिलने-वालों से मिल कर तो, बढ़ जाती  है और उदासी,
हार गए ज़िन्दगी जहाँ हम पता चला वह बात जरा-सी;

मन कहता है दर्द कभी स्वाविकार न कर
मज़बूरी हर रोज़ कहे इस को सहिये !

कल कुछ देर किसी सूने में मैंने की ख़ुद से कुछ बातें,
लगा कि जैसे मुझे बुलायें बिन बाजों-वाली बारातें;
कोई नहीं मिला जो सुनता मुझ से मेरी हैरानी को,
देखा सब ने मुझे, न देखा मेरी आँखों के पानी को;

रोने लगी मुझी पर जब मेरी आँखें
हँस कर बोले लोग, मांग मत जो चहिये !

फुलवारी में फूलों से भी ज़्यादा साँपों के पहरे हैं,
रंगों के शौक़ीन आज भी जलते जंगल में ठहरे हैं;
जिन के लिए समंदर छोड़ा वे बादल भी काम न आये,
नयी सुबह का वादा कर के, लोग अंधेरों तक ले आये;

भूला यह भी दर्द, चलो कुछ और जियें
जाने कब रुक जांय ज़िन्दगी के पहिये !



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