Tuesday, April 29, 2014

मैं परिधियों में रहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं परिधियों में रहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ
यह , कि मेरे सिन्धु-व्यापी प्यास के क्षण तय  करेंगे !

शीश पर जैसे किसी ने मेघ-मालायें कासी हैं ,
आदिवासी कामनायें लोचनों में आ बसी हैं ,
मैं परिधियों में ढहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ
यह , कि मेरे ऊर्ध्वगामी ह्रास के क्षण तय करेंगे !

आज हम दोंनों प्रभंजन की भुजाओं  में जड़े हैं ,
पारदर्शी-सीपियों में ज्वार के झूले पड़े हैं ,
मैं परिधिओं में बहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ
यह , कि मेरे शेषशायी त्रास के क्षण तय करेंगे !

जल-विसर्जित दीप झिलमिल चंद्रमा की बाँह में है ,
चन्दनी दावाग्नि , अक्षय ओस-कण की छांह में है ,
मैं परिधिओं को सहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियां
यह , किमेरे शून्यवासी रास के क्षण तय करेंगे !

इन्द्रधनुषी शिंजिनी आकर्ण खिंच कर रह गयी है ,
आत्म-चेतना मूर्छना से अनकहे कुछ कह गयी है ,
मैं परिधिओं में दहूँ , या तोड़ दूँ सारी परिधियाँ
यह , कि मेरे नटवरी संन्यास के क्षण तय करेंगे !

No comments:

Post a Comment