Tuesday, April 29, 2014

बादलों पर तुम लगाओ दोष मनमाने निरंतर - राम अधीर

बादलों पर तुम लगाओ दोष मनमाने निरंतर
जानता हूँ मैं
तुम्हारा घट कभी प्यासा नहीं था !

है मुझे मालूम अब यह पक्षपाती हो गया है ,
पूर्णिमा , एकादशी-जैसा विसाती हो गया है ,
साँझ या भिनसार पनिहारिन यहाँ दीखे न दीखे
गाँव को मालूम है
पनघट कभी प्यासा नहीं था !

आजकल वह आंसुओं से रोज़ करता है लड़ाई ,
और तुम थकते नहीं  करते हुए अपनी बड़ाई ,
सूख जाने पर नदी की रेत दीखेगी यहाँ पर
किन्तु मिट्टी की नमी से
तट कभी प्यासा नहीं था !

याद है मुझ को सलोनापन , कि जब तुम गाँव आयी ,
और आँचल में समेटे सैकड़ों संसार लायी ,
घेर कर सब ने कहा था , 'दुल्हन प्यासी लग रही है'
पर मुझे मालूम था
घूँघट कभी प्यासा नहीं था !

रेणुका ब्रज की मुसाफ़िर के लिए कंचन नहीं हैं ,
गोपिकाओं के लिए , हर गाँव भी मधुवन नहीं है ,
रासलीला हो न हो , मधुकर यहाँ आये न आये
नूपरों के संग
वंशीवट कभी प्यासा नहीं था !

1 comment:

  1. राम अधीर जी का बड़ा प्रशंसक हूँ
    सुन्दर गीत पढवाने के लिए धन्यवाद

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