Saturday, April 19, 2014

ऐसी गाँठ बंधी अंतस में , चाहा भी तो खोल न पाया ! - अमर नाथ श्रीवास्तव

ऐसी गाँठ बंधी अंतस में  ,
चाहा भी तो खोल न पाया !
कभी समय पर सोच न पाया
कभी समय पर बोल न पाया !

भीतर-भीतर फाँस समेटे
बाहर-बाहर हँसी तुम्हारी ,
तुम से मिलना , उत्सव ऐसा
रातें रूठी पलकें भारी ,

मिला मुझे आकाश नमन का
मैं अपने पर तोल न पाया !

वे परम्परा के आभूषण
भार हो गए रिश्ते-नाते
धारण करते जी डरता था
खोने का भय , आते-जाते ,

फूलों के ज़ेवर जो सोचे
बाज़ारों में मोल न पाया !

बार-बार शब्दों का चुनना
बार-बार उनमें संशोधन ,
दो होठों के बीच रह गये

फागुन की आहट आयी भी
टेसू के रंग घोल न पाया !

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