Sunday, April 6, 2014

प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार ! -प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

तय न हो पाया की चुम्बन, वासना या प्यार !
प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार !

आह से धूमिल न होगा पारदर्शी रूप,
मेघमाला से ढलेगी इन्द्रधनुषी धूप,
तृप्ति के सर पर लटकती दूधिया तलवार !
प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार !

होंठ पर हैं होंठ, करतल : करतालों के पास,
भित्ति-चित्रों में मुखर है प्रीति का संत्रास,
यों-लगे, जैसे किनारे पर खड़ी मझधार !
प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार !

जानता है कौन हम किस कन्दरा में लीन ,
गंध है बेहोश, ऐसी बज रही है बीन,
हम उतर आये अतल में, क्षीर-सागर पार !
प्यार ने स्वीकार कर ली कांच की दीवार !

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