Sunday, April 20, 2014

इसीलिये शापित है मेरा अस्तित्व यहाँ - बालस्वरूप 'राही'

इसीलिये शापित है मेरा अस्तित्व यहाँ
मिले-जुले चेहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं !

उकतायी शामों के हाथों में
फूलों के दीपक है बुझे-बुझे ,
नहीं , नहीं , अपने ही कमरे की
 खुशबू में जाने दे लौट मुझे ,

दरपनी अकेलेपन ! मैं उझ में झाकूँगा
धुंधलाये शहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं !

जीवन-भर लीक-लीक चलने से
अच्छा है कहीं बंद हो जाना ,
छंदों के साँचे में ढलने से
बेहतर है , मुक्तछन्द हो जाना ,

हाँ , मैं अपने ही भीतर डूब गया हूँ गहरा
तटवर्ती लहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं !

सम्भव है कोई अनसही व्यथा
दे जाये फिर मुझ को जन्म नया ,
सूर्यमुखी अहम् बहुत काफ़ी है
रहने दो निशिगंधा आत्म-दया ,

कोई अनुभूति वायरल मुझ को फिर सिरजेगी
एकरूप प्रहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं !  

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